![Nagarjun, Nagarjun ek vidrohi kavi, Indu ji Indu ji Kya hua aapko, Aao rani ham dhoyenge palki, Yash apyash ho man hani ho, Baba Nagarjun, Baidyanath Mishra yatri, Jankavi, Satlkha, Maithili wirter, Baba Nagrajun ki kavita, Hindi kavita, Maithili kavita,](https://www.thehawabaaz.com/wp-content/uploads/2021/06/Nagarjun-ki-vidrohi-kavita.jpg)
जेठ की दूपहरी में जब चिलचिलाती धूप धरती जला रही थी । सतलखा गाँव के बभनटोली में कुछ ज्यादा ही चहल पहल हो रही थी । पण्ड़ित जी की दुलारी बेटी उमा देवी ने आज एक पुत्र को जन्म दिया था । नाम रखा गया बैद्यनाथ मिश्र ।
इनके पिताजी तरौनी गाँव के पुरोहित और किसान गोकुल मिश्र थे । पिताजी पुरोहिताई करते थे और बालक बैद्यानाथ उनके साथ गाँव-गाँव घुमते थे । इतना घुमें कि अपने नाम के पिछे यात्री लगा लिये । अब बैद्यनाथ मिश्र सिर्फ बैद्यनाथ नहीं होकर बैद्यनाथ मिश्र यात्री हो गए । इनकी प्रारंभिक शिक्षा संस्कृत में हुई और बनारस, कलकत्ता पढ़ते पढ़ते संस्कृत में ‘साहित्य आचार्य’ की उपाधि ले लिये ।
20 र्व्ष के हुए तब इनका विवाह 12वर्ष की अपराजिता देवी से करवा दी गई । 6 बच्चे के पिता भी बनेलेकिन अपने पिता के चरित्र और अपने विधवा काकी के हालात से खिन्न होकर वो वाराणसी चलें आएं और चलते-चलते ये कह भी गएं –
“कर्मक फल भोगथु बूढ़ बाप
हम टा संतति से हुनक पाप”
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बनारस में आपने राहुल सांकृत्यायन के ‘संयुक्त निकाय’ जो मूल पाली में लिखा गया था पढ़ने के लिये कोलम्बो चले आएं और आक्रोश से कहते गएं…
“माँ मिथिले ई अंतिम प्रणाम
दुःखोदधिसँ संतरण हेतु
चिर विस्मृत वस्तुक स्मरण हेतु
हम जाए रहल छी आन ठाम
हे मातृभूमि शत शत प्रणाम”
मुदा बाद में अफ़सोस हुआ तो ‘अपराजिता’ के पास लौंट आएं और बोलें वो तो सिर्फ एक कविता थी जो परम्परा के विरोध में लिखी गई थी । माँ को भी कोई अंतिम प्रणाम कह सकता है भला? जैसे लोगों को किसी क्षण क्रोध में, आक्रोश में कहा जाता है कि अगर हम लौट कर दुबारा घर आएं तो हमारे नाम पर कुत्ता पाल लेना’ और फिर लौट कर घर आ जाता है तो क्या उनके नाम पर कुत्ता पोस लेना चाहिये । ये खेत-पथार, कमला-कोशी भी कोई भूल सकता है भला । इसलिये हम भी भटकते-भटकते यहाँ आ ही गएं ।
‘यश अपयश हो, मान हानि हो, भय हो अथवा शोक
सबसे पहिने मोन पड़ैत अछि, अप्पन गामक लोक ।’
यात्री जी की कविता में जितना विद्रोह जितना आक्रोश देखने में आया है वो कहीं और किसी कवि में देखने को नहीं मिला । बात चाहे विक्टोरिया के दिल्ली दरबार की हो या चीन के लड़ाई के, इमरजेंसी की । अंधेरी रात हो हो या गांधी हत्या का दाग । यात्री जी हमेशा सरकार को आइना दिखाते रहें ।
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इनकी कविता
इंदु जी इंदु जी क्या हुआ आपको
बेटे को तार दिया बोर दिया बाप को
या
आओ रानी हम ढोएंगे पालकी
राय बनी है यही जवाहर लाल की
पर गौर करें तो सरकार के ख़िलाफ़ ऐसा जाज्वल्य स्वर सिर्फ और सिर्फ नागार्जुन ही निकाल सकते हैं । उसमें भी नेहरू और इंदिरा के ख़िलाफ़ इमरजेंसी के कालिमा में ।
यात्री जी मार्क्सवाद के प्रबल समर्थक थे और आजीवन रहें। इनकी कविता में सम्पूर्ण भारतीय काव्य परंपरा की झलक देखने में आती है। कालिदास, विद्यापति, कबीर, निराला और धूमिल की छाप इनकी कविता में स्पष्ट रूप से देखाई पड़ती है । यही कारण है कि इन्हें भारत के प्रगतिवादी विचारधारा के प्रयोगधर्मी आधुनिक कवि माना जाता है ।
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बाबा आजीवन फक्कड़ रहें लेकिन इनकी कविता का जोश कभी कम न हुआ । ट्रेन में ‘बूढ़ बर’ और ‘बिलाप’ कविता की फोटो कॉपी बेचकर काम चला लिये, लेकिन हाथ फैलाकर मांगना नहीं सीखें । चाय के कप में गरम पानी पीते थे और सिंघी मछली खूब रुची लेकर खाते थे। लम्बे केश और चंचल आँख । बाबा जैसे संवेदनशील इंसान आज तक दूसरा नहीं देखने को मिला । बाबा का ठहाका भी जग प्रसिद्ध था, जब लोग मुँह लटका कर आते थे बाबा बड़े जोर से ठहक्का लगाते थे । कछु लोगों का कहना था कि बाबा बूढ़ापे में भसिया गए हैं । लेकिन गरीबी की चिंता और दमा के रोग अच्छे-अच्छे लोगों को भसिया देते हैं ।
5 नवंबर 1998 को दरभंगा के ख़्वाजासराई में यात्री जी इस लोक को छोड़कर उसलोक चले गएं और जाते-जाते मिथिला को आशीर्वाद दे गएं-
भगवान हमर ई मिथिला, सुख शांति केर घर हो
आदर्श भए सभक ई, इतिहास मे अमर हो ।
अंतिम विनय दयालु, बस आब एकटा जे
ई पाग विश्वभरि मे, सबकेर माथ पर हो ।।