भादव माह की चतुर्थी तिथि को उदय होने वाला चन्द्रमा का दर्शन दोषयुक्त है, लेकिन मिथिला में इस दिन चन्द्रमा की विधिवाद पूजन करने की विशेष परंपरा रही है। 16वीं शताब्दी से ही मिथिला में ये लोक पर्व मनाया जा रहा है। मिथिला नरेश महाराजा हेमांगद ठाकुर के कलंक मुक्त होने के अवसर पर महारानी हेमलता ने कलंकित चांद को पूजने की परंपरा शुरु की, जो बाद में मिथिला का लोकपर्व बन गया।
छठ पर्व की तरह ही हर जाति हर वर्ग के लोग इस पर्व को हर्षोल्लाष पूर्वक मानते हैं। छठ में जहाँ हम सूर्य की पूजा करते हैं, वहीं इस दिन हम चन्द्रमा की पूजा करते हैं। कहते हैं कि इसदिन चन्द्रमा का दर्शन खाली हाथ नहीं करना चाहिए। यथासंभव हाथ में फल अथवा मिठाई लेकर चन्द्र दर्शन करने से मनुष्य का जीवन दोषमुक्त व कलंकमुक्त हो जाता है।
चौरचन की शुरुआत के पीछे की कहानी यह है कि मुगल बादशाह अकबर ने तिरहुत की नेतृत्वहीनता और अराजकता को खत्म करने के लिए 1556 में महेश ठाकुर को मिथिला का राज सौंपा। बडे भाई गोपाल ठाकुर के निधन के बाद 1568 में हेमांगद ठाकुर मिथिला के राजा बने, लेकिन उन्हें राजकाज में कोई रुचि नहीं थी। उनके राजा बनने के बाद लगान वसूली में अनियमितता को लेकर दिल्ली तक शिकायत पहुंची। राजा हेमांगद ठाकुर को दिल्ली तलब किया गया। दिल्ली का सुल्तान यह मानने को तैयार नहीं था कि कोई राजा पूरे दिन पूजा और अध्ययन में रमा रहेगा और लगान वसूली के लिए उसे समय ही नहीं मिलेगा। लगान छुपाने के आरोप में हेमानंद को जेल में डाल दिया गया।
कारावास में हेमांगद पूरे दिन जमीन पर गणना करते रहते थे। पहरी पूछता था तो वो चंद्रमा की चाल समझने की बात कहते थे। धीरे-धीरे यह बात फैलने लगी कि हेमांगद ठाकुर की मानसिक स्थिति ठीक नहीं है और इन्हें इलाज की जरुरत है। यह सूचना पाकर बादशाह खुद हेमांगद को देखने कारावास पहुंचे। जमीन पर अंकों और ग्रहों के चित्र देख पूछा कि आप पूरे दिन यह क्या लिखते रहते हैं। हेमांगद ने कहा कि यहां दूसरा कोई काम था नहीं सो ग्रहों की चाल गिन रहा हूं। करीब 500 साल तक लगनेवाले ग्रहणों की गणाना पूरी हो चुकी है।
हेमांगद ने बादशाह को माह, तारीख और समय बताया। उन्होंने चंद्रग्रहण की भविष्यवाणी की थी। उनके गणना के अनुसार चंद्रग्रहण लगा और बादशाह ने उनकी सजा माफ़ कर दी।
जेल से रिहा होने के बाद हेमांगद ठाकुर जब मिथिला आये तो महारानी हेमलता ने कहा कि आज चांद कलंकमुक्त हो गये हैं, हम उनका दर्शन और पूजा करेंगे। इसी मत के साथ मिथिला के लोगों ने भी अपना राज्य और अपने राजा की वापसी की ख़ुशी में चतुर्थी चन्द्र की पूजा प्रारम्भ की।
आज ये मिथिला के बाहर भी मनाया जाता है और एक लोक पर्व बन चुका है। व्रती पूरे दिन का उपवास रखते हैं। शाम को अपने सुविधानुसार घर के आँगन या छत पर चिकनी मिट्टी या गाय के गोबर से नीप कर पीठार से अरिपन दिया जाता है। पूरी-पकवान, फल, मिठाई, दही इत्यादि को अरिपन पर सजाया जाता है और हाथ में उठकर चंद्रमा का दर्शन कर उन्हें भोग लगाया जाता है।-
सिंह प्रसेन मवधीत्सिंहो जाम्बवताहत:!
सुकुमारक मा रोदीस्तव ह्येष स्यमन्तक:!!
इस मंत्र का जाप कर प्रणाम करते हैं-
नम: शुभ्रांशवे तुभ्यं द्विजराजाय ते नम।
रोहिणीपतये तुभ्यं लक्ष्मीभ्रात्रे नमोऽस्तु ते।।
दही को उठा ये मंत्र पढते हैं-
दिव्यशङ्ख तुषाराभं क्षीरोदार्णवसंभवम्!
नमामि शशिनं भक्त्या शंभोर्मुकुट भूषणम्!!
फिर परिवार के सभी सदस्य हाथ में फल लेकर दर्शन कर उनसे निर्दोष व कलनमुक्त होने की कामना करते हैं।
प्रार्थना मंत्र-
मृगाङ्क रोहिणीनाथ शम्भो: शिरसि भूषण।
व्रतं संपूर्णतां यातु सौभाग्यं च प्रयच्छ मे।।
रुपं देहि यशो देहि भाग्यं भगवन् देहि मे।
पुत्रोन्देहि धनन्देहि सर्वान् कामान् प्रदेहि मे।।
चौरचन को याद करते हुए मैथिली साहित्य कार शेफालिका वर्मा कहती है “उगः चाँद लपकः पूरी” आज भी उत्सा्ह से भर देता है। हमारा गांव कोसी की मार झेलता गरीबों का गांव था फिर भी चौरचन के दिन सबों के घर में उत्साह रहता। ज़ितने मर्द उतने ही कलश, उतने ही दही के खोर, उतनी ही फूलों पत्तों की डलिया, खाजा, टिकरी, बालूशाही, खजूर, पिडकिया, दालपुरी खीर आदि आदि पूड़ी पकवान… पूरे आँगन में सजा के रखा जाता, उतने ही पत्तल भी केला के लगे होते, चाँद उगने के साथ ही घर की सबसे बड़ी मलकिनी काकी माँ पंडित के मन्त्र के साथ साथ एक एक सामग्री चाँद को दिखा रखती जाती थी, अंत में सारे मर्द पत्तों में खाते यानी ‘मडर भान्गते’ । माँ सारे गांव को प्रसाद बांटती प्रसाद लेने वालों की लाइन लगी रहती थी।
वैसे मिथिला के अलावा पूरे भारत में इस दिन चांद देखना निषेद माना गया है। वेद-शाश्त्रों के अनुसार इस दिन चंद्र दर्शन अशुभ माना जाता है। श्री कृष्णा को स्मयंतक मणि चोरी करने का कलंक लगा था, यह मणि प्रसेन ने चुराई थी। एक सिंह ने प्रसेन को मार दिया था फिर जामवंत ने उस सिंह का वध कर वह मणि हासिल किया था। इसके बाद श्री कृष्णा ने जामवंत को युद्ध में पराजित कर इस मणि को हासिल कर कलंकमुक्त हुए थे।
कुमुद सिंह पेशे से पत्रकार हैं और अपनी बेबाक लेखनी के लिये प्रसिद्ध है । मिथिला और राज दरभंगा की वो एनसाइक्लोपीडिया हैं ।