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4500 सालों का इतिहास: ‘ब्रा’ की कहानी
4500 वर्ष पहले के भारत, मिस्र और रोमन सभ्यताओं में स्त्रियों की छाती को ढँकने/बाँधने के लिए साधारण कपड़ों से ले कर आज के आधुनिक अधोवस्त्र की कहानी रोचक है। पुराने समय में छाती को अत्यधिक कसाव के साथ बाँध लिया जाता था ताकि गृह कार्यों से ले कर युद्ध या खेल स्पर्धाओं में थोड़ी आसानी हो जाए। युद्ध में तो खैर उसके ऊपर धातु का कवच भी हुआ करता था।
बीसवीं शताब्दी की शुरुआत में फ्रांस की महारानी कैथरीन डी मेदीची ने ‘कोरसेट’ को लोकप्रिय बनाया। ये कोरसेट वस्तुतः विक्टोरिया काल (1800) में प्रचलन में आए थे जब स्त्रियों की साँस रोकने वाला, लगभग अमानवीय, यह अंतःवस्त्र उनके नितम्बों और छाती के आकार को उभारते थे। यह कमर से ले कर छाती की शुरुआत तक इतने ज्यादा कसे जाते थे कि स्त्रियाँ इसे विवशता में ही पहनती थीं। हॉलीवुड की कई फिल्मों में आप इस कोरसेट को ले कर स्त्रियों का विद्रोह देख पाएँगे। कोरसेट में आने वाले समयों में बदलाव होते रहे, लेकिन वो कभी भी स्त्रियों या लड़कियों के लिए सहजता से स्वीकारने वाला वस्त्र नहीं बन पाया।
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जब भी कोई समस्या हो, और उसका समाधान आता है, तो उसके केन्द्र में उनके उपभोक्ता होते हैं। उस वस्तु के डिजाइन का एक ‘फंक्शनल परपस’ भी होना चाहिए कि उसका असली कार्य क्या है? क्या वह सिर्फ दिखने में बेहतर है, या उसका और भी काम है। जैसे कि आपके स्मार्टफोन में ‘स्लीप/वेक’ बटन का ऊपरी हिस्से में होना गलत है क्योंकि एक हाथ से ऑन/ऑफ करना सहज नहीं होता। इसलिए बड़े होते फोनों के दौर में यह अब ‘साइड’ में आपके अँगूठे की पहुँच में आ गया है।
ख़ैर, बात हो रही थी ब्रा की। 1913 में अमेरिकी समाजसेवी महिला मेरी फेल्प्स जेकब्स को एक आयोजन में जाना था लेकिन उनके वक्षों के आकार के बड़े होने के कारण फिटिंग की समस्या आ गई। तब उन्होंने अपनी नौकरानी से कुछ रुमाल और फीते मँगवाए। इससे जो आविष्कार हुआ वह ‘अंतःवस्त्र’ कोरसेट से कई गुणा आरामदेह भी था, और अपना काम भी बखूबी कर पा रहा था। इस नए उत्पाद को उन्होंने पेटेंट कराया और नाम दिया ‘ब्रेज़ियर/ब्रेसियर’।
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अगले दशक में प्रथम विश्वयुद्ध छिड़ा हुआ था, तब धातु और कपड़ों की कमी के कारण औरतों को कहा गया कि वो कोरसेट न खरीदें। इसी समय कुछ व्यवसायियों ने फैल सकने वाले (स्ट्रेचेबल) कप्स के ब्रेज़ियर का उत्पादन शुरु कर दिया। यह काफ़ी आरामदायक था और स्ट्रेचेबल होने का मतलब यह था कि अब ज्यादा स्त्रियाँ इसका प्रयोग कर सकती थीं।
यहीं पर एस एच कैम्प एंड कम्पनी ने A से D कप साइज को बाजार में उतारा। इसके साथ ही एडजस्ट किए जा सकने वाले हुक्स भी उतारे गए। इससे एक ही ब्रा को बढ़ती उम्र के साथ हुक्स को आगे-पीछे करते हुए, लम्बे समय तक पहना जा सकता था। जब तक यह नहीं था, बढ़ती उम्र की लड़कियों के लिए यह एक समस्या थी। इसी समय में ‘ब्रेज़ियर’ अपने छोटे नाम ‘ब्रा’ से प्रचलित होने लगा।
1940 के दशक में द्वितीय विश्वयुद्ध छिड़ चुका था और इस समय दोबारा ब्रा के डिजाइन में कई परिवर्तन हुए। इस समय जो लड़कियाँ मिलिट्री में जा रही थीं, उनके लिए बिना ब्रा के जाने में समस्याएँ थीं। इसी समय ‘बुलेट’ या ‘टॉरपीडो’ शैली के कप्स बाजार में आए जो हॉलीवुड की कई अभिनेत्रियों ने पहना और लोकप्रिय बनाया। ये वही तिकोने कप्स थे जो आपको पुरानी बॉलीवुड फिल्मों में अभिनेत्रियाँ पहनती दिखती हैं। ये बात और है कि हॉलीवुड का ब्रा डिजाइन, बॉलीवुड के ब्लाउज़ में अपना असर छोड़ रहा था। ध्यान में आएगा कि हमारी नायिकाओं के ब्लाउज के बाकी हिस्से का रंग कुछ और होता था, लेकिन जो कप्स हैं, वो सफेद या कॉन्ट्रास्ट कलर का।
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विश्वयुद्ध के बाद यूरोप और अमेरिका में बच्चे पैदा करने का एक दौर चला क्योंकि जनसंख्या काफी कम हो गई थी। ऐसे में ‘नर्सिंग ब्रा’ का आविष्कार हुआ ताकि माताएँ शिशुओं को ब्रा पहने हुए ही स्तनपान करा सकें। यूँ तो 1943 में ही यह आ गया था लेकिन 1991 में अलग-अलग कप साइज़ और एक ही हाथ से खोल सकने वाली तकनीक लाने वाली डिज़ाइनर मेरी सांचेज़ ने इसे लोकप्रिय बनाया।
1960 के दशक में ‘वन्डर ब्रा’ आया था। हालाँकि, यह विचित्र समय था इसके आने का क्योंकि इसी समय अमेरिका में हिपी लोग ‘ब्रा’ जलाने के कार्यक्रम कर रहे थे और इनके कई बड़े आयकॉन बिना ब्रा के मंचों पर जा कर स्पीच देते थे, सड़कों पर विरोध मार्च करते थे। कनाडा में इसी समय स्त्रियों के वक्षस्थल को ऊपर की तरफ उभारने वाले ‘वन्डर ब्रा’ पर कार्य चल रहा था। इसमें पचास से ज्यादा ‘फंक्शनल एलिमेंट्स’ थे जो स्त्रियों के वक्षस्थल को न सिर्फ आकर्षक बना कर दिखाते थे, बल्कि सहज और आरामदायक भी थे। तीस साल बाद, ये अचानक से तब लोकप्रिय हो गए, जब एक विज्ञापन कैम्पेन चला, जिसका शीर्षक था: हेलो ब्वॉय्ज। इसे हिन्दी में ‘कैसे हो लौंडों’ भी कह सकते हैं।
अगले दशक में आई ‘स्पोर्ट्स ब्रा’। जैसा कि शुरुआत में बताया गया है कि प्राचीन काल में ब्रा की आवश्यकता ही खेल आदि के समय पड़ती थी, बाकी समय में उन्हें मतलब नहीं था। लेकिन स्पोर्ट्स ब्रा के आने में काफी समय लग गया। वरमोन्ट विश्वविद्यालय के कॉस्ट्यूम विभाग में काम करती तीन स्त्रियों ने उन लड़कियों/महिलाओं को लिए यह ब्रा बनाई जो कामकाजी भी थी, और व्यायाम आदि भी करती थीं। इसको उन्होंने ‘जॉगब्रा’ नाम दिया। लेकिन यह चर्चा में तब आया जब अमेरिकी सॉकर खिलाड़ी ब्रैंडी चेस्टेन ने वर्ल्ड कप में जीतने वाला गोल मारने के बाद अपनी जर्सी फाड़ दी और उनकी नाइकी कम्पनी वाली ब्रा वैश्विक पटल पर छा गई।
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आधुनिक ब्रा को आने में, जहाँ अलग-अलग आकार की स्त्रियों को शामिल करने, स्तनों के आकारों के अनुरूप ‘मोल्डेड कप्स’ वाले, अधिक आरामदेह कपड़ों वाले, हल्के, ‘सीमलेस’ ब्रा का उत्पादन होने लगा, दो दशक लग गए। फैशन अब मध्यमवर्गीय घरों में पहुँच चुका था और ब्रा की उपयोगिता सिर्फ शारीरिक सहजता ही नहीं, बल्कि सौंदर्य के लिए भी आवश्यक मानी जाने लगी।
इसी में पैडेड, नेटेड, स्ट्रैपलेस, स्टिकी (जिसमें सिर्फ दो कप्स होते हैं और उनमें गोंद होता है जो स्तनों से चिपक जाता है) आदि भी आने लगे। फिर भी, जितनी लड़कियों से मैं मिला हूँ, उनका मानना है कि ब्रा का कसाव (चाहे आप उसे कितना भी स्ट्रेचेबल क्यों न बना दो) एक बाधा की ही तरह होता है। आपकी परेशानी कम हो सकती है, जाती नहीं। इसलिए, वो जितनी जल्दी हो सके उनसे मुक्त होना चाहती हैं, और जब आवश्यक हो, तभी पहनना चाहती हैं।
नोट: ये जानकारी मैंने इंटरनेट से ली है, जिसका एक बड़ा हिस्सा ‘ट्रू एंड को’ पर उपलब्ध है।
यह जानकारी अजीत भारती के फेसबुक पोस्ट से ली गई है । बिना किसी संपादन के हवाबाज मीडिया ने सीधा-सीधा इसे यहाँ चस्पा कर दिया है । किसी भी तरह के शिकायत या सुझाव के लिये सीधे लेखक से संपर्क कर सकते हैं । पता है – Ajeet Bharti