आधुनिक युग मे हम अपने संस्कारों और प्रचलनों की बस खानापूर्ति भर कर रहे हैं । या इन सबको लगभग नकारते जा रहे हैं । जैसे कि अगर हम उपनयन अर्थात जनेऊ की बात करें जो कि एक वैदिक रीति है और इसके बाद ही कोई बालक ब्राह्मण कहलाता है । जैसा कि हमारे सभी पूजा पाठ में बांस ,मिट्टी और लकड़ी के सामानों की अहमियत होती है ठीक वैसे ही इस संस्कार में, इन सबके साथ जुलाहे तक की अहमियत को भुलाया नहीं जा सकता ।
जैसा कि मैंने पिछले दिनों हुए अपने भतीजे के जनेऊ में ऐसा महसूस किया कि संभवत प्राचीन काल में लड़कों को इस संस्कार के बाद मातृ भिक्षा के बाद अपनी पोटली लेकर लकड़ी के खराम(चप्पल) और हथकरघा के बुने वस्त्र पहन कर रथ की सवारी करते हुए गुरुकुल जाना पड़ता था । आज के समय में ये सारी चीजें प्रतीकात्मक रूप में बची हैं । इस अनुसार आज के दौर में कुछ ही बालक जनेऊ में कराए गए नियमों का पालन अपने पिता या पितामह की तरह जीवन पर्यन्त करते हैं अथवा खाने पीने संबंधी निषेधाज्ञा को मानते हैं ।
अगर हम इस संस्कार के द्वारा किसी लड़के के विवाह के लिए योग्य होने की समाज में आधिकारिक घोषणा माने तो यह कारण भी बढ़ते हुए अंतरजातीय विवाह को देखते हुए बेकार ही कहे जाएंगे। अगर पिछले दस बीस साल पहले के जनेऊ के खर्च से इसकी तुलना की जाए तो इसमें बेहताशा वृद्धि हुई है जबकि अगर इसमें होने वाले नियमों की बात करें तो वे धीरे धीरे रस्मी तौर ही निभाए जा रहे हैं । जहां पहले के दिनों में ये आयोजन लगभग दस दिनों का हुआ करता था अब ये सिमट कर एक से दो दिनों का रह गया है । समय सीमा कम होना या नियमों के विषय में उदारवादी होने के बावजूद ये नई पीढ़ी इसके लिए अच्छा खासा उत्साहित दिखाई देने लगा है ।
हर दंपती को ये मालूम है कि अपने बेटे को भविष्य में इन नियमों की आवश्यकता कभी कभार ही पड़ेगी और इस मद में पैसा या समय की काफी जरूरत है लेकिन फिर भी महानगर ही नहीं विदेशों से भी जनेऊ करवाने के लिए आने वालों की काफी संख्या है ।इस आयोजन या संस्कार का रूप धीरे धीरे बदलता जा रहा है ।पहले इसे एक यज्ञ के रूप में देखा जाता था वही अब इसने एक इवेंट या फैमिली गेट टू गेदर का रूप ले लिया है ।पहले विवाह ,मुंडन या जनेऊ आदि में जाने की सीमा अपने गाँवो तक सीमित थी लेकिन अब लोग दोस्तों और रिश्तेदारों के पारिवारिक उत्सव को लोग दूर शहर तक अटेंड करना चाहते हैं। इस बदलाव के कारणों पर अगर गौर किया जाए तो पहला कारण पारिवारिक सदस्यों का अपने घरों से दूरी कहा जा सकता है ।अपने दोस्तों या रिश्तेदारों से मिलने के लिए हमें किसी बहाने की जरूरत पड़ती है क्योंकि पहले की तरह लोगों का छुट्टियों में रिश्तेदारों के घर जाने का प्रचलन लगभग नहीं के बराबर है ।
दूसरी ओर लोगों में पहले के मुकाबले आर्थिक संपन्नता बढ़ने के साथ पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्ति है ।पहले अगर परिवार की परिभाषा दी जाए तो उसमें किसी कमाने वाली की जिम्मेदारी उसके माँ बाप के साथ साथ सभी भाई बहन और उनके बच्चे हुआ करते थे जिनकी पढ़ाई और विवाह आदि से वो ताउम्र घिरा रहता था अब परिवार की प्राथमिकता में व्यक्ति खुद और उसके बच्चे मात्र हैं ,अन्य कारणों की ओर सोचे तो लोग पहले से ज्यादा शौकीन हो गए हैं अब मात्र उनकी जरूरत रोटी, कपड़ा और मकान तक सीमित नहीं है तो इस तरह के उत्सवों में सबका ध्यान जाने लगा है ।
सौभाग्य से मैं उस समाज से संबंध रखती हूं जहाँ बेटी की शादी तक में दहेज तो दूर की बात माँ बाप के लेन देन संबंधी टीका टिप्पणी को भी हेय दृष्टि से देखा जाता था वहीं हर जगह लेने देने का स्तर काफी बढ़ गया है ।विवाह के साथ संगीत और मेहंदी जैसी बातें जो हमारे समाज के लिए अनदेखी थीं वो जुड़ गई हैं। तो सौ बात की एक बात की यह भी एक सामाजिक परिवर्तन है क्योंकि इस तरह का आयोजन मात्र उपनयन तक ही सीमित नहीं है बल्कि मुंडन ,गृहप्रवेश या अगर कुछ और नहीं तो सालगिरह,शादी की सालगिरह या पूरे साल आने वाले विभिन्न प्रकार के” डे” तक को लोग आयोजित करना चाहते हैं और किसी भी बदलाव के अच्छे और बुरे दोनों ही असर होते हैं जिसे हमें स्वीकार करना ही पड़ता है ।
कुल मिलाकर ये कहना बिल्कुल सही होगा कि समय के अभाव और संसाधनों की कमी ने एक तरफ जहाँ हमें हमारे संस्कारों से दूर किया है वही पश्चात्य सभ्यता इसके लिए कुछ हद तक जिम्मेवार है । जब तक हम अपने संस्कारों अपने जड़ो को नही जान पाएंगे, हम अपने अतीत का वह सुनहरा पन्ना कभी नही देख पाएंगे जिसपर कभी हम गर्व करते थे ।
लेखिका रंजना मिश्रा राँची वीमेंस कॉलेज की छात्रा रही है, फेसबूक पर बेबाकी से लिखती हैं और अपने जज्बातों को ब्लॉग पर उतारती हैं। अनकही बातें इनके ब्लॉग का पता है । आप इनसे https://ankahibaatien.blogspot.com/ पर मिल सकते हैं ।