आज एक जिला 250 वां वर्ष पुरा हो गया है । आधी दुनियां जब वैलेनटाइन मनाने में लगी थी तब एक अंग्रेज जॉर्ज गुस्ताव डुकरेल ईस्ट इंडिया कंपनी के पैगाम से यहाँ आया था और इस जिले की स्थापना की थी । इस पुरी कहानी को वरिष्ट पत्रकार पुष्य मित्र ने अपने शब्दों में बयान किया है । हम बिना किसी कांट-छांट के उनके लिखे को सीधा यहां चस्पा कर रहे हैं ।
250 साल का अनमना सा युवा- हमारा पूर्णिया
आज दुनिया भर के लिये वेलेंटाइन डे है, हमारे लिये हमारे जिला पूर्णिया का स्थापना दिवस है। आज से 250 साल पहले ईस्ट इंडिया कंपनी ने एक युवक जॉर्ज गुस्ताव डुकरेल को पूर्णिया भेजा था, सुपरवाइजर बना कर।
वैसे तो ईस्ट इंडिया कंपनी को मुगल बादशाह शाह आलम से बंगाल का दीवानी अधिकार 1765 में ही मिल गया था, मगर उसने इस व्यवस्था को बनाने में चार साल ले लिये और टैक्स कलेक्शन का काम 16 अगस्त, 1769 से शुरू किया। इसी प्रक्रिया के तहत उसने कुछ जिलों में व्यवस्था बहाली के लिये सुपरवाइजर की नियुक्ति की व्यवस्था शुरू की (1772 में इस पद का नाम कलेक्टर कर दिया गया, जो आजतक है।)। फारसी भाषा का जानकार डुकरेल ईस्ट इंडिया कंपनी द्वारा नियुक्त पहला सुपरवाइजर था। उसे पूर्णिया भेजा गया, क्योंकि कोसी तट के उपजाऊ क्षेत्र पूर्णिया में रेवेन्यू कलेक्शन की भरपूर गुंजाइश थी, मगर अब तक उसे ठीक से एक्सप्लोर नहीं किया गया था।
उन दिनों कोसी नदी पूर्णिया जिले के बीच से होकर बहती थी, इसका पाट बहुत चौड़ा था और इसके दोनों किनारे के दलदली इलाके धीरे-धीरे सूख रहे थे। इस आकार लेती नई उपजाऊ जमीन के लिये किसानों और रैयतों की तलाश थी। महज 40 साल पहले मुगल दरबार के मशहूर फौजदार सैफ अली ने कोसी के पूर्वी इलाके को पूर्णिया जिले में शामिल किया था, 1732 से पहले यह इलाका बीर नगर के मल्ल राजाओं के अधीन था। सैफ अली ने कई बड़े किसानों और रैयतों को यहां बसाने में सफलता हासिल की थी, मगर सैफ के वारिस उन्हें रोक पाने में विफल रहे, 1769 का भीषण अकाल ताबूत में आखिरी कील साबित हुआ और 40 साल पहले इस इलाके को आबाद करने पहुंचे किसान और रैयत यहां से पलायन करने लगे।
1769 का अकाल भीषण था। पूरे एक साल नाम लेने को भी बारिश नहीं हुई थी। सारे पोखर और तमाम नदियां सूख गई थीं। इस बीच दीवानगंज स्थित खाद्यान्न के गोदाम में आग लग गई। यानी खाने को कुछ भी नहीं बचा, सिवाय इसके कि इंसान, इंसान को ही खाने लगें। हजारों लोग अकाल कलवित हो गए। पूर्णिया की आबादी अचानक काफी घट गई। इन हालात में डुकरेल का आगमन हुआ और उस वक़्त के दस्तावेज कहते हैं कि डुकरेल ने पूर्णिया की स्थिति को संभाल लिया और संवारा। महज कुछ ही साल बाद पूर्णिया इतना बेहतरीन इलाका हो गया कि बड़ी संख्या में यूरोपियन यहां आकर बसने लगे। यहां के रामबाग के इलाके में उनकी बस्ती बस गयी। यहां का जंगल उन्हें काफी पसंद आया, जिसे शिकार के लिये सबसे बेहतर जगह बताया गया।
आज अगर कोई कहे कि महज 80-90 साल पहले तक पूर्णिया का जंगल शिकार के लिये मशहूर था तो कोई भरोसा नहीं करेगा। मगर वे कहानियां शिकारलैंड ऑफ पूर्णिया नामक पुस्तक में दर्ज हैं। यहां के इलाकों के नाम गवाही देते हैं, चाहे बनभाग हो, बनमनखी हो, मधुबनी हो या गेड़ा बाड़ी हो जहां एक जमाने में सचमुच के गैंडे मिलते थे, जिनका अंग्रेजों ने शिकार भी किया था।
इस पूर्णिया के जंगलों पर विभूति भूषण बंद्योपाध्याय ने आरण्यक नामक मशहूर नावेल लिखा था। मगर पूर्णिया तब सिर्फ जंगली इलाका ही नहीं था, ऐशो आराम से परिपूर्ण एक आधुनिक शहर बन रहा था। इस शहर में यूरोपियन लोगों ने एक बड़ा रेसकोर्स भी तैयार किया था, जहां रेस में भाग लेने कोलकाता तक से घोड़े आते थे। यह सब डुकरेल की सोच का नमूना था।
वहीं धीरे धीरे यहां छपरा के बाबू साहेब, मिथिला के पंडित और संथाल परगना के संथाल आकर बसने लगे, ताकि नई जमीन को आबाद कर सकें। डुकरेल ने नए किसानों को टैक्स में भारी छूट दी थी। बाकी यादव और मुसलमान तो हमेशा से कोसी के दियारे में बसते ही थे। जहां उनके पशुओं को बेहतरीन घास मिलती थी। फिर बंगाली बाबुओं की एक जमात पहुंची जिसने दफ्तरों में बाबू की नौकरियों पर कब्जा कर लिया और पूर्णिया शहर के नागरिक बन गए। सैफ अली के दरबार के मुसलमान तो पहले से पूर्णिया के नागरिक थे, हालांकि उनका खानदान किशनगंज की तरफ सरक रहा था।
इस तरफ कभी कोसी के किनारे बसा पूर्णिया एक बहुभाषी और बहुसांस्कृतिक समाज लिबरल समाज के रूप में विकसित होने लगा। 18वीं सदी के आखिर में यहां फकीर विद्रोह की छाया पड़ी, 1857 में न्यू जलपाईगुड़ी के फौजियों के विद्रोह की वजह से गरमाया। फिर गांधीवादी आंदोलनों के साथ डूबने उपराने लगा। 1942 में यहाँ धमदाहा समेत कई जगह भीषण क्रांति हुई। और उसके बाद पूर्णिया भूमिहीनों और जमींदारों के संघर्ष का क्षेत्र बन गया। जिसकी परिणति रूपसपुर में संथालों के जनसंहार से हुई जो आज़ाद के बाद बिहार का पहला जातीय नरसंहार था।
दरअसल, डुकरेल ने जिस तरह यहां जमींदारों को बसाया उससे आने वाले वक्त में जमीन का भारी असंतुलन पैदा हो गया। चंद लोगों के पास हजारों एकड़ जमीन थी, जबकि आदिवासी, दलित और दूसरी जातियों के ज्यादातर लोग भूमिहीन थे। जमींदार रैयतों पर हर तरह का अत्याचार करते थे। इस अत्याचार के विरोध में नछत्तर मालाकार जैसे क्रांतिकारी का आविर्भाव हुआ। अपने छापामार और चमत्कारी व्यक्तित्व की वजह से वह एक विलक्षण चरित्र बन गया, जिसने अपने दौर के लगभग सभी साहित्यकारों को आकर्षित किया। फिर अजीत सरकार जैसे विचार सम्पन्न युवाओं ने यहां की असमानता को खत्म करने की लड़ाई को आगे बढ़ाया। मगर बाद में जातीय राजनीति ने जमीन के असली सवालों का गला घोंट दिया और क्रांतियां हिंसा का प्रहसन बन कर रह गयी। इस दौर के लेखक सुरेंद्र स्निग्ध ने अपनी किताब कछार में ऐसी तमाम कहानियां सिलसिलेवार तरीके से लिखी हैं।
इसके बावजूद पूर्णिया एक जिंदा इलाका है। बहुसंस्कृति इसी सबसे बड़ी खासियत है। इसी वजह से इस इलाके में एक ही साथ हिंदी, उर्दू, बांग्ला और मैथिली के शीर्षस्थ उपन्यासकार हुए। इस बारे में अलग से एक पोस्ट पहले ही लिख चुका हूँ।
वैसे तो इस जगह का जिक्र मुख्यतः आईने अकबरी से मिलना शुरू होता है, जिसमें पूर्णिया को सरकार की प्रशासनिक इकाई का दर्जा बताया गया था। सरकार उस वक़्त जिले को कहा जाता था, मगर इस जिले का सबसे प्राचीन इलाका बनमनखी के पास स्थित धरहरा में है, एक स्तम्भ जिसे प्रह्लाद का खम्भा कहा जाता है जो अशोक कालीन स्तंम्भों जैसा है। इसके पास ही एक गढ़ है और बगल से कभी हिरण कोसी की धारा बहा करती थी। इसके बाद कटिहार जिले का काढ़ा गोला है, जो पहले पूर्णिया का हिस्सा था, जहां गुरुतेग बहादुर कड़ा प्रसाद बांटते थे। उनके अनुयायी बिहारी सिख आज भी वहाँ एक गांव में रहते हैं। गढ़बनैली में फौजदार सैफ अली के बनाये किले के खंडहर अभी भी मौजूद हैं।
फिर वह बनैली स्टेट है, कला, साहित्य और संस्कृति में उसका अमूल्य योगदान है। संगीत में तो है ही।
और फिर शहर में स्थित दुर्गाबाड़ी मुहल्ला जो आज भी पूर्णिया की सांस्कृतिक पहचान है।
यह मुक्त विचारों वाले बौद्धिकों और कलाकारों की धरती है, यह अन्याय के खिलाफ लड़ने वालों की धरती है। मगर इसके इतिहास, इसकी संस्कृति और इसके अवदान के पन्ने यहां वहां बिखरे हैं। यह 250 साल का एक अनमना सा युवक है, जिसे न अपने इतिहास की पहचान है, न भविष्य की परवाह।
पुनश्च- स्टेटस बड़ा भी हो गया, कई बातें छूट भी गयीं। उनमें से एक बात थी डुकरेल के प्रेम सम्बंध में जिसका जिक्र कई दफा हो चुका है और आज भी कई लोग कहेंगे कि उसने एक विधवा महिला को अपने पति की चिता पर सती होने से बचाया और फिर उसे अपना जीवनसाथी बनाया। हालांकि इस कहानी का कम से कम मुझे कोई ऐतिहासिक दस्तावेज नहीं मिला है, मगर शायद इसलिये भी ऐसा हुआ हो कि उस वक़्त के जो दस्तावेज हैं वे सबके सब सरकारी कामकाज के। वहां मुहब्बत कहां दर्ज होती है।
हां, इस बारे में मेरे पास एक विशेष जानकारी है कि महान कथाकार अमृतलाल नागर ने एक उपन्यास चिता की लपटें लिखा था, जिसमें एक ऐसे अंग्रेज युवक और भारतीय युवती की कथा है जो कुछ कुछ ऐसी ही है। युवक ने युवती को सती होने से बचाया है और उससे प्रेम करने लगा है, मगर युवती का आकर्षण कोलकाता के एक प्रगतिशील युवक के प्रति है जो संभवतः राजा राममोहन राय का किरदार लगता है। सम्भवतः इस बहाने अमृतलाल नागर ने सती प्रथा के विरोधी दो ऐतिहासिक किरदारों को साथ लाने की कोशिश की है। वे संभवतः पूर्णिया के डुकरेल और कोलकाता के राजा राममोहन राय ही हैं।
तस्वीर- इस पोस्ट के साथ लगी तस्वीर उस भौचक पूर्णिया वासी किसान की है जो पहली दफा हवाई जहाज को उड़ते हुए देख रहा है। विश्व का पहला एवरेस्ट एक्सपीडिशन 1934 में पूर्णिया से ही शुरू हुआ था, तब कुछ यूरोपियन जहाज लेकर आये थे और उन्होंने पूर्णिया से उड़ान भरी थी ताकि एवरेस्ट का एरियल सर्वे कर सकें। यह उसी दौरान की तस्वीर है। उस एरियल सर्वे को साथ ही साथ शूट भी किया गया था और उसके फुटेज को जोड़ कर 1936 में फ़िल्म बनी थी, विंग्स ओवर एवेरेस्ट। जिसे अगले साल ऑस्कर अवार्ड मिला था।