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Home अतिथि लेख

असम और एनआरसी का पुरा कच्चा -चिट्ठा : आसान भाषा में

in अतिथि लेख, भारत, सोशल मीडिया, हवाबाज़ी
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असम के एक तरफ पूर्वी बंगाल (फिलहाल बांग्लादेश) था और दूसरी तरफ था पश्चिम बंगाल (1905 में हुए बंटवारे तक बंगाल एक ही था) और असम से थोड़ी दूर चलने पर था बिहार। पचास के दशक से ही गैरकानूनी रूप से बाहरी लोगों का असम में आना एक राजनीतिक मुद्दा बनने लगा था। औपनिवेशिक काल में बिहार और बंगाल में बड़ी तादाद में चाय बगान में काम करने के लिए लोग आने लगे। अंग्रेजों ने उन्हें यहां खाली पड़ी जमीन पर खेती करने के लिए प्रोत्साहित किया। इसके बाद विभाजन के बाद नए बने पूर्वी पाकिस्तान से पश्चिम बंगाल और त्रिपुरा के साथ ही असम में भी बड़ी संख्या में बंगाली लोग आए। तब से ही वहां रह-रह कर बाहरी बनाम स्थानीय के मुद्दे पर चिंगारी सुलगती रही। लेकिन 1971 में पूर्वी पाकिस्तान और वर्तमान के बांग्लादेश में मुसलमान बंगालियों के खिलाफ पाकिस्तानी सेना की हिंसक कार्रवाई शुरू हुई तो वहां के करीब 10 लाख लोगों ने असम में शरण ली। बांग्लादेश बनने के बाद इनमें से ज्यादातर लोग लौट गए लेकिन तकरीबन एक लाख लोग वहीं रह गए। 1971 के बाद भी कई बांग्लादेशी असम आते रहे। जल्द ही स्थानीय लोगों को ये लगने लगा कि बाहर से आए लोग उनके संसाधनों पर कब्जा कर लेंगे और इस तरह जनसंख्या में हो रहे बदलावों ने असम के मूल वासियों में भाषाई, संस्कृतिक और राजनीतिक असुरक्षा की भावना पैदा कर दी। इस भय ने 1978 के आसपास एक शक्तिशाली आंदोलन को जन्म दिया। जिसका नेतृ्तव वहां की युवाओं ने किया। इसी बीच आल असम स्टूडेंट यूनियन यानी आसू और आल असम गण संग्राम परिषद ने मांग की कि विधानसभा चुनाव कराने से पहले विदेशी घुसपैठियों की समस्या का हल निकाला जाए। बांग्लादेशियों को वापस भेजने के अलावा आंदोलनकारियों ने मांग रखी कि 1961 के बाद राज्य में आने वाले लोगों को वापस अपने राज्य भेजा जाए या कही और बसाया जाए। आंदोलन उग्र होता गया और राजनीतिक अस्थिरता का माहौल पैदा हो गया।

 

1979 के लोकसभा उपचुनाव में मंगलदोई सीट पर वोटरों की संख्या में अत्यधिक इजाफा हुआ। जब पता किया गया तो जानकारी मिली कि ऐसा बांग्लादेशी अवैध शरणार्थियों की वजह से हुआ है। 1977 के आम चुनाव के बाद दो साल में अतिरिक्त 77 हजार वोटर निकले। जिसके बाद इसके खिलाफ आब्जेक्शन फाइल हुआ। बाद में उनमें से 37 हजार विदेशी निकले। जिसके बाद ये आंदोलन चला। 1983 के विधानसभा चुनाव का राज्य की बड़ी आबादी ने बहिष्कार किया। इस बीच राज्य में आदिवासी, भाषाई और सांस्कृतिक पहचान के नाम पर बड़े पैमाने पर हिंसा हुई। भारत में पहली बार असम में हिंसा देखने को मिला। जब 15 फ़रवरी, 1983 को असम के नौगांव जिले में स्थित एक पुलिस स्टेशन के अफ़सर ने एक संदेश भेजा। इसमें लिखा था, ‘ख़बर है कि पिछली रात नेली गांव के इर्द-गिर्द बसे गांवों से तकरीबन 1000 असमिया लोग ढोल बजाते हुए नेली गांव के नजदीक इकट्ठा हो गए हैं। उनके पास धारदार हथियार हैं। नेली गांव के अल्पसंख्यक भयभीत हैं, किसी भी क्षण उन पर हमला हो सकता है। शांति स्थापित करने के लिए तुरंत कार्रवाई का निवेदन किया जाता है।’ तीन दिन बाद यानी 18 फ़रवरी की अलसुबह दंगाइयों का घेरा और तंग हो गया। अब जब नेली और आसपास के 11 गांवों में फंसे हुए लोगों के बच निकलने की जगह न बची, तो पहले आग लगाई और फिर बड़े इत्मीनान से तकरीबन 1800 लोग- बूढ़े, जवान, औरतें और बच्चे- क़त्ल कर डाले गए। ग़ैर सरकारी आंकड़ा क़रीब 3000 मौतों का है। इस घटना को नेला कांड के नाम से जाना जाता है।

 

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1984 के आम चुनाव में राज्य के 14 संसदीय क्षेत्रों में चुनाव ही नहीं हो पाए। इसके बाद राजीव गांधी की पहल थी कि कैसे शांति प्रक्रिया की जाए। 1985 को केंद्र की तत्कालीन राजीव गांधी की सरकार और केंद्र के नेताओं के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते के नाम से जाना जाता है।

 

क्या है असम समझौता?

– असम में घुसपैठियों के ख़िलाफ़ वर्ष 1979 से चले लंबे आंदोलन और 1983 की भीषण हिंसा के बाद समझौते के लिये बातचीत की प्रक्रिया शुरू हुई।

– इसके परिणामस्वरूप 15 अगस्त 1985 को केंद्र सरकार और आंदोलनकारियों के बीच समझौता हुआ जिसे असम समझौते (Assam Accord) के नाम से जाना जाता है।

– आल असम स्टूडेंट्स यूनियन (AASU) और कुछ अन्य संगठनों तथा भारत सरकार के बीच हुआ यह समझौता ही असम समझौता कहलाता है।

– असम समझौते के मुताबिक 25 मार्च, 1971 के बाद असम में आए सभी बांग्लादेशी नागरिकों को यहाँ से जाना होगा, चाहे वे हिंदू हों या मुसलमान।

– इस समझौते के तहत 1951 से 1961 के बीच असम आए सभी लोगों को पूर्ण नागरिकता और मतदान का अधिकार देने का फैसला लिया गया।

– इस समझौते के तहत 1961 से 1971 के बीच असम आने वाले लोगों को नागरिकता तथा अन्य अधिकार दिये गए, लेकिन उन्हें मतदान का अधिकार नहीं दिया गया।

– इस समझौते का पैरा 5।8 कहता है कि 25 मार्च, 1971 या उसके बाद असम में आने वाले विदेशियों को कानून के अनुसार निष्कासित किया जाएगा। ऐसे विदेशियों को बाहर निकालने के लिये तात्कालिक एवं व्यावहारिक कदम उठाए जाएंगे।

– इस समझौते के तहत विधानसभा भंग करके 1985 में चुनाव कराए गए, जिसमें नवगठित असम गण परिषद को बहुमत मिला और AASU के अध्यक्ष प्रफुल्ल कुमार महंत असम के मुख्यमंत्री बने।

– इस समझौते में असम के आर्थिक विकास के लिये पैकेज भी दिया गया तथा असमिया भाषी लोगों की सांस्कृतिक, सामाजिक और भाषायी पहचान सुरक्षित रखने के लिये विशेष कानूनी और प्रशासनिक उपाय किये गए।

 

इसके साथ ही असम समझौते के आधार पर मतदाता सूची में भी संशोधन किया गया।

 

असम समझौते की धारा-6

असम समझौते की धारा-6 में असमियों की सांस्कृतिक, सामाजिक, भाषाई पहचान और धरोहर के संरक्षण और उसे बढावा देने के लिये उचित संवैधानिक, विधायी तथा प्रशासनिक उपाय करने का प्रावधान है। समिति इन प्रावधानों को लागू करने के लिये 1985 से अब तक उठाए गए कदमों की समीक्षा करेगी।

 

असम अकॉर्ड के अलावा असम आंदोलन के लोगों की एक और मांग थी कि असम के मुख्यमंत्री इस्तीफा दें और नए सिरे से चुनाव हों क्योंकि असम के लोगों ने तो चुनाव में हिस्सा ही नहीं लिया था। राजीव सरकार ने सीएम के इस्तीफे वाली बात भी मान ली और सीएम हितेश्वर सैकिया का इस्तीफा हो गया। राज्य में नए सिरे से चुनाव हुए और कांग्रेस का सामना इस चुनाव में एक नई पार्टी से हुआ। 13-14 अक्टूबर, 1985 को गोलघाट में आसू और असम गण संग्राम परिषद ने मिलकर एक राजनीतिक पार्टी बनाई और नाम रखा- असम गण परिषद। चुनाव हुए तो 126 में से 92 निर्दलीय और कांग्रेस के 25 उम्मीदवार चुनाव जीते। ये निर्दलीय असम गण परिषद के समर्थन से जीते थे। असम के नए मुख्यमंत्री बने आसू के प्रेसीडेंट रहे प्रफुल्ल कुमार महंता। ये अपने आप में एक रिकॉर्ड था, क्योंकि महंता 32 साल की उम्र में देश के सबसे युवा सीएम बने। लेकिन महंतो भी प्रदेश की जनता की मांग पर खरे नहीं उतर पाए और सरकार ने जो वादा किया वो निभाया नहीं क्योंकि बांग्लादेशी लोगों को वापस भेजने के लिए कोई ठोस कदम नहीं उठाया गया। नतीजतन एक बार फिर कांग्रेस की सरकार आई और ये मामला वैसा का वैसा ही रहा। लेकिन फिर सर्बानंद ने असम में विदेशियों के मामले को पूरे जोर-शोर से उठाना शुरू किया। वो इस मामले को सुप्रीम कोर्ट में लेकर गए और IMDT एक्ट को चुनौती दी। सुप्रीम कोर्ट की संवैधानिक पीठ ने 2005 में दिए अपने फैसले में इस एक्ट को असंवैधानिक बताते हुए निरस्त कर दिया। असम में विदेशियों के मामले पर फिर से सुप्रीम कोर्ट में सुनवाई शुरू हुई। सुप्रीम कोर्ट ने आदेश दिया कि 1951 में शुरू हुआ काम पूरा हो– माने एक रजिस्टर बने जिसमें असम में रहने वाले भारतीय नागरिकों की पहचान दर्ज हो। जिसका नाम न हो, वो विदेशी माना जाए। यही NRC है। सर्बानंद सोनोवाल, वो 2011 में असम गण परिषद को छोड़कर भाजपा में शामिल हो गए और वर्तमान में राज्य के मुख्यमंत्री हैं।

 

नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016 से फिर भड़का असम

बीजेपी में शामिल होने से पहले सर्वानंद सोनोवाल असम गण परिषद के स्टूडेंट विंग ऑल असम स्टूडेंट यूनियन के अध्यक्ष थे। इसके अलावा सोनोवाल नॉर्थ ईस्ट स्टुडेंट्स यूनियन के अध्यक्ष भी रह चुके थे। बीजेपी में शामिल होने से पहले वो असम गण परिषद के नेता थे। 2011 में उन्होंने असम गण परिषद का साथ छोड़ दिया था और बीजेपी में शामिल हो गए थे। यहां आते ही उन्हें पहले कार्यकारिणी का सदस्य और फिर असम बीजेपी का प्रवक्ता बना दिया गया। 2012 और 2014 में दो बार बीजेपी का अध्यक्ष रहने के बाद सोनोवाल को 2014 में लखीमपुर लोकसभा सीट से उम्मीदवार बनाया गया। केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी तो उन्हें खेल एवं युवा मंत्रालय के तहत खेल और युवा मामलों का राज्यमंत्री (स्वतंत्र प्रभार) बनाया गया।

 

22 फरवरी 2014 को जब बीजेपी के प्रधानमंत्री पद के दावेदार नरेंद्र मोदी असम के सिलचर में चुनावी सभा कर रहे थे, तो उन्होंने कहा था-

‘बांग्लादेश से दो तरह के लोग भारत में आए हैं। एक शरणार्थी हैं जबकि दूसरे घुसपैठिये। अगर हमारी सरकार बनती है तो हम बांग्लादेश से आए हिंदू शरणार्थियों को नागरिकता देने के साथ ही घुसपैठियों को यहां से बाहर खदेड़ने का भी वादा करते हैं।’

 

केंद्र में बीजेपी की सरकार बनी। इसके बाद 19 जुलाई 2016 को केंद्रीय गृह मंत्री राजनाथ सिंह ने लोकसभा में ‘नागरिकता (संशोधन) विधेयक, 2016’ पेश किया। यह विधेयक 1955 के उस ‘नागरिकता अधिनियम’ में बदलाव के लिए था, जिसके जरिए किसी भी व्यक्ति की भारतीय नागरिकता तय होती है। इस विधेयक में प्रावधान था कि अफगानिस्तान, बांग्लादेश और पकिस्तान से आने वाले हिंदू, सिख, बौध, जैन, पारसी और ईसाई लोगों को ‘अवैध प्रवासी’ नहीं माना जाएगा।’ इसका सीधा सा अर्थ ये था कि इसके जरिए बांग्लादेशी हिंदुओं को भारत की नागरिकता दी जानी थी।

 

2016 में जब असम में चुनाव थे, तो सर्वानंद सोनोवाल ने चुनावी वादा करते हुए कहा था-

”बांग्लादेशी हिंदुओं को भारत की नागरिकता दी जाएगी।”

 

असम के मुख्यमंत्री सर्वानंद सोनोवाल असम के कछारी जनजातीय समुदाय से आते हैं। उन्हें राज्य के सबसे पुराने छात्र संगठन आसू ने ‘जातीय नायक’ कहा था। भारत-बांग्लादेश की सीमा 4096 किलोमीटर लंबी है। इसमें 263 किलोमीटर सीमा असम से जुड़ी है और 224 किलोमीटर की बाड़बंदी की जा चुकी है। पहले छात्र संगठन और फिर बीजेपी से जुड़े सर्वानंद सोनोवाल ने 2014 में ही बांग्लादेश के घुसपैठ के मुद्दे को सुप्रीम कोर्ट में उठाया था। इसमें कहा गया था कि 25 मार्च 1971 तक बांग्लादेश से भारत आए लोगों की नागरिकता तय की जाए। सुप्रीम कोर्ट के जस्टिस रंजन गोगोई की अगुआई वाली बेंच ने मामले को लार्जर बेंच को रेफर करते हुए इसे चीफ जस्टिस के सामने भेज दिया और कहा कि नैशनल रजिस्ट्रेशन ऑफ सिटिजनन्स  (NRC) का काम मार्च , 2018 तक पूरा कर लिया जाए। सुप्रीम कोर्ट में कुल 40 सुनवाइयां हुईं, जिसकी पूरी डिटेल आप यहां क्लिक करके पढ़ सकते हैं। आखिरकार 31 अगस्त, 2019 को एनआरसी की फाइनल लिस्ट जारी कर दी गई। अब 31 दिसंबर, 2019 तक लिस्ट से बाहर हुए लोग अपना नाम जुड़वाने के लिए फॉरेनर्स ट्रिब्यूनल, हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट में अपील कर सकते हैं। अगर वहां से भी कामयाबी नहीं मिली तो ऐसे लोगों को हिरासत में ले लिया जाएगा।

Tags: AsamNRC
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